मां की कुछ अनकही बातें
माँ ने, एक बात कही आज,
कह रही थी कि बेटी ना मायके की होती है ना ससुराल देता है उसका साथ।
मैंने तुरंत पूछ लिया, बचपन से सिखा रही बातों से आज ऐसे ही मुँह मोड़ लिया?
तुमने क्यों मुझे सिखाया कि मेरा घर है पराया ?
अपना होगा मेरा ससुराल वहां मिलेगी मुझे छाया।
माँ ने कुछ नहीं कहा उसके बाद, शायद मेरे सवालों का नहीं था उसके पास जवाब।
एक लंबी सांस भरकर, उसने मुँह फेर लिया ,
मैंने पूछा अरे यह क्या, अभी से नाता तोड़ लिया?
माँ हँसी नहीं इस बार, उसकी शिकन बढ़ गई और।
मैंने कहा, क्या हुआ कुछ तो बोल दो ?
अपनी खामोशी का ताला खोल दो।
माँ खोई सी लग रही थी,
वो बिन बोले बहुत कुछ कह रही थी।
"वादा कर तू कभी नहीं करेगी त्याग चाहे जो हो उसके बाद और तू....""माँ ने बस इतना कहा था कि,
"खाना बना या नहीं?", नीचे से आई आवाज।
माँ की बात अधूरी रह गई ,
हमेशा की तरह इस बार भी उसकी प्राथमिकता डोल गई
वह सिखा रही थी मुझे मेरे हक का पाठ ,
जिसे शायद,नारी विद्रोह कहेगा समाज
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